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मेरा नाम संजय गुप्ता है, मैं यॉर्क में एक कंसलटेंट कार्डियोलॉजिस्ट हूँ और आज का वीडियो एएफ और डीमेंसिया के विषय पर है।

अब पहली बात जो मैं कहना चाहता था, वह यह है कि दुर्भाग्य से आधुनिक समय की चिकित्सा पद्धति काफी हद तक क्लिनिकल  ​​​​गाइडलाइन्स की गुलाम है। किसी मरीज का इलाज कैसे किया जाए, हम इस बात को तय किसी और, जिसने भी गाइडलाइन्स लिखी है, उसके बताये तरीके की रोगी को कैसे मैनेज किया जाय, से करते हैं। यदि हम गाइडलाइन्स का पालन करते हैं, तो हमें लगता है कि हम उच्च क्वालिटी वाली देखभाल दे रहे हैं और हम अदालत में अपना बचाव कर सकते हैं। यदि हम गाइडलाइन्स का पालन नहीं करते हैं, तो हमे अपने सहयोगियों और चिकित्सा-कानून के वकीलों द्वारा आलोचना को लेकर डरा हुआ महसूस करते हैं। एनआईसीई (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लिनिकल एक्सीलेंस) जैसे प्रतिष्ठित बॉडीज द्वारा प्रकाशित किए गए अधिकांश गाइडलाइन्स साक्ष्यों की एग्जामिनेशन कर इस बात पर आधारित होते हैं कि इलाज कितना फायदेमंद हो सकता है और साथ ही यह भी की यह कितना किफायती हो सकता है। यदि इसे फायदेमंद या किफायती नहीं माना जाता है तो इसकी रिकमेन्डेशन नहीं की जाती है। और दुर्भाग्य से सभी यही मानते ​​है कि यह तरीका रोगी के इलाज़ में विचार करने लायक नहीं है। समस्या यह है कि गाइडलाइन्स रिसर्च से कई साल पीछे हैं। और इसलिए, जब वैज्ञानिक ऑब्जरवेशन द्वारा कुछ महत्वपूर्ण पाते हैं, तो सबसे पहले उन्हें अपने संदेह की पुष्टि या खंडन करने के लिए कठोर एक्सपेरिमेंट करना होता है। फिर उन्हें बड़े पैमाने पर इंसानी परीक्षण करके इसकी कन्फर्मेशन  करनी होगी। फिर उन्हें डेटा प्रकाशित करने के लिए एक मैगज़ीन ढूंढना होता है। और यदि डेटा बहुत उत्साहित करने वाला हैं तो विशेषज्ञों का एक ग्रुप एक साथ आता है और यह तय करता है कि रिजल्ट गाइडलाइन बदलने के योग्य हैं या नहीं। और फिर वह गाइडलाइन प्रकाशित होता है। और, जमीनी स्तर पर चिकित्सा पद्धति में बदलाव के रूप में गाइडलाइन्स में बदलाव को अपनाने में कई साल लग सकते हैं।

इसलिए पूरी प्रोसेस में आसानी से 10 से 15 साल लग सकते हैं और इसलिए रोगियों का इस अवधि में थोड़े कमतर तरीके से इलाज जारी रखा जाता हैं, भले ही ऐसे रिसर्च उपलब्ध हो जो बताएं कि चीजें बेहतर की जा सकती हैं। चूंकि डॉक्टर आमतौर पर बहुत रक्षात्मक होते हैं और विशेष रूप से रेफ्लेक्टिव् नहीं होते हैं, इसलिए रोगियों का लेटेस्ट रिसर्च के बारे में जानना महत्वपूर्ण है, ताकि वे अपने लिए बोल सकें और इलाज के तरीके के निर्णय लेने के प्रोसेस में किसी भी उपलब्ध नए रिसर्च का उपयोग कर सकें। यह रोगी सशक्तिकरण की नींव है। इसलिए मैंने यह चैनल शुरू किया है। मेरा मानना ​​​​है कि मरीजों को उन सभी सूचनाओं से लैस किया जाना चाहिए जो उन्हें उनके उनकी स्थिति को मैनेज करने के सबसे अच्छे तरीके का इस्तेमाल करने की अनुमति देती हैं। और डॉक्टर की भूमिका एक शिक्षक की और एक सक्षम करनेवाला होने की है, न कि डॉक्टर ऐसा दिखाए कि वे सब कुछ जानते हैं और रोगी कुछ भी नहीं जानता है।

आज मैं एएफ के क्षेत्र में कुछ परेशान करने वाले रिसर्च के बारे में बात करना चाहता था। एएफ का मतलब एट्रियल फिब्रिलेशन है। एएफ हार्ट रिदम की सबसे आम गड़बड़ी में से एक है और लगभग 2 प्रतिशत आबादी को प्रभावित कर सकती है। एएफ का बड़ा रिस्क यह है की इसे स्ट्रोक के रिस्क को बढ़ानेवाला माना जाता है। और इसलिए जब भी हम 65 वर्ष से अधिक आयु के रोगियों या कोर्बिडीटीज वाले रोगियों को देखते हैं तो हम आजीवन एंटीकोआग्यूलेशन की सलाह देते हैं। और जब तक रोगी एंटीकोआग्यूलेटेड होता है तब तक हमें लगता है कि रोगी सुरक्षित है। हम वास्तव में कभी भी स्ट्रोक के रिस्क से बाहर नहीं सोचते हैं। यदि रोगी 65 वर्ष से कम उम्र का है और उसे कोर्बिडीटीज नहीं है तो हम उसे एंटी-कोएग्युलेट नहीं करते क्योंकि हमारा मानना ​​है कि स्ट्रोक का रिस्क बहुत कम है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई स्टडी  हुए हैं जिनमें एएफ के रोगियों का स्टडी  किया गया है और पता चला है कि एएफ के रोगियों में कोगनिटिव नुकसान और डीमेंसिया का काफी अधिक प्रसार होता है। और, चूंकि हमारे पास इस बारे में कोई क्लिनिकल गाइडलाइन्स नहीं हैं, इसलिए हमें अभी यह कोशिश करना और पता लगाना होगा कि यह सम्बन्ध क्यों है।

तो, पहली बात यह है कि क्या यह सिर्फ संयोग हो सकता है। यह बहुत ही अनलाइकेलि है कि यह सिर्फ एक संयोग हो। क्योंकि कई बड़े पैमाने के स्टडी  हुए हैं जिन्होंने इसकी पुष्टि की है। 2009 में एक स्टडी किया गया था, 2009 मतलब लगभग 12 साल पहले, जिसे इंटर-माउंटेन हार्ट कोऑपरेटिव स्टडी कहा जाता है, जिसने 37,000 रोगियों का इवैल्यूएशन किया और एएफ और डीमेंसिया के डेवलपमेंट के लिए उनका फॉलोअप किया और पाया कि एएफ वाले रोगियों में, बिना एएफ वाले रोगियों की तुलना में डीमेंसिया डेवेलप होने की संभावना 44 प्रतिशत अधिक थी। इसके अलावा यह भी पाया गया की, युवा रोगी, 70 वर्ष से कम आयु के रोगी, यह महत्वपूर्ण है क्योंकि इन रोगियों को पारंपरिक रूप से स्ट्रोक का कम रिस्क माना जाता है, में सभी प्रकार के डीमेंसिया और विशेष रूप से अल्जाइमर डीमेंसिया होने का अधिक रिस्क था । और एएफ के साथ डीमेंसिया के रोगियों में, बिना एएफ के डीमेंसिया के रोगियों की तुलना में, मृत्यु दर काफी अधिक पायी गई ।

तो वास्तव में यह चिंताजनक डेटा है। दो और स्टडी, ऑन टारगेट और ट्रांसेंड स्टडीज, से पता चला कि एएफ होने पर कई परेशानियों का रिस्क बढ़ जाता है जैसे की कोग्निटिव कमजोरी, न्यू ओनसेट डीमेंसिया, दैनिक कार्यों को करने में क्षमता की कमी और इन रोगीओं में दीर्घकालिक देखभाल सुविधाओं में प्रवेश की उच्य दर. रॉटरडैम स्टडी नामक एक और स्टडी था, जिसने फिर से दिखाया कि एएफ रोगियों में और विशेष रूप से एएफ के साथ युवा रोगियों में डीमेंसिया आम था।

कुल मिलाकर, 14 से अधिक स्टडी  हुए हैं जिन्होंने इस संबंध को देखा है और अधिकांश ने इस खोज की पुष्टि की है। इसलिए, इस बात की बहुत ज्यादा संभावना है कि यह केवल एक संयोग नहीं है बल्कि एएफ और डीमेंसिया के होने के बीच एक संबंध है। इसलिए, अब हमें यह पता लगाने की जरूरत है कि वह संबंध क्या हो सकता है। क्या ऐसा हो सकता है, क्योंकि एएफ और डीमेंसिया विशेष रूप से समान रिस्क वाले फैक्टर्स को साझा करते हैं क्योंकि एएफ किसी तरह से डीमेंसिया पैदा कर रहा है। ठीक है। एएफ और डीमेंसिया बूढ़े लोगों और बीमार लोगों को प्रभावित करते हैं, विशेष रूप से जिनके पास डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर जैसे रिस्क फैक्टर्स हैं। और मुझे यकीन है कि एक हद तक यह सच है कि डीमेंसिया का बढ़ा हुआ रिस्क शायद अन्य उन सभी चीजों के कारण है, जो आपके एएफ के रिस्क को भी बढ़ाता है जैसे कि उम्र, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर आदि। और इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि जब हम एएफ के रोगियों का इलाज करते हैं तो हम कुछ दूसरे रिस्क फैक्टर्स से भी निपटते हैं। कुछ मायनों में केवल रोगी को एंटीकोगुलेट करने से रोगी स्वस्थ नहीं हो जाता। हम सिर्फ स्ट्रोक के रिस्क को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, रोगी को उनकी जीवन शैली में सुधार के लिए शिक्षित करना और उनके रिस्क फैक्टर्स को आक्रामक रूप से टारगेट करना रोगी को एक स्वस्थ व्यक्ति बना देगा और इसलिए प्रत्येक एएफ रोगी में इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं किया जाता है। एएफ वाला एक व्यक्ति आता है, लोग उसे सिर्फ एंटीकोआगुलंट्स पर डालते हैं, और उन्हें घर जाने देते हैं। लेकिन यह देखना अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण है कि क्या रोगी का वजन अधिक है, क्या रोगी को स्लीप एपनिया है, क्या उनका ब्लड प्रेशर कण्ट्रोल से बाहर है, आदि। और टार्गेटिंग, जो अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण है।

अब, अगला प्रश्न यह है कि क्या एएफ स्वयं डीमेंसिया को डेवलप करने का कारण बन सकती है। हम जानते हैं कि एएफ के रोगियों में हृदय के भीतर क्लोट्स बनने की संभावना अधिक होती है और वे क्लोट्स ब्रेन में जा सकते हैं और स्ट्रोक का कारण बन सकते हैं। यह स्ट्रोक है जिसमे रोगी न्यूरोलॉजिकल फ़ंक्शन की हानि को देखता है। हालाँकि, यह भी बहुत संभव है कि हृदय में सूक्ष्म क्लोट्स बन रहे हों और भटक कर ब्रेन में जा रहे हों। और चूंकि ये क्लोट्स इतने छोटे होते हैं, वे स्ट्रोक का कारण नहीं बनते हैं। लेकिन वे ब्रेन के छोटे एरियाज की मृत्यु का कारण बन सकते हैं और इसलिए ब्रेन के ग्रेजुअल नुकसान का कारण बन सकते हैं। यह एक स्ट्रोक के रूप में दिखाई नहीं देता है, इसलिए कोई नहीं कहता कि ओह, आपको स्ट्रोक हुआ है, लेकिन बाद में और धीरे-धीरे ब्रेन की कार्यक्षमता कमती जाती है। इस बात की वास्तव में पुष्टि की गई है। और एथेरोस्क्लेरोसिस रिस्क एंड कम्युनिटी स्टडी नाम का एक स्टडी था, जिसने वास्तव में पुष्टि की थी कि एएफ के साथ रोगियों में कोग्निटिव कमजोरी उन लोगों में देखी गई थी जिनके पास सब-क्लिनिकल सेरेब्रल इंफार्क्ट थे। तो, एएफ के रोगियों में छोटे सूक्ष्म स्ट्रोक के प्रमाण हैं, जो डीमेंसिया के डेवलप होने में योगदान दे सकते हैं।

एक और कारन यह हो सकता है कि जब हम एएफ में होते हैं, तो हमारे दिल उतना रक्त पंप नहीं कर रहे हैं जितना कि अगर हम सामान्य साइनस रिदम में होते हैं और इसलिए यह हो सकता है कि रक्त की कमी ब्रेन फंक्शन के नुकसान में योगदान दे रही हो। यदि वास्तव में ऐसा है, तो शायद रोगी को साइनस रिदम में रखने से डीमेंसिया की संभावना कम हो सकती है। क्या यह भी हो सकता है कि एंटीकोआगुलंट्स के साथ एएफ का उपचार डीमेंसिया यानी माइक्रोब्लीड्स में योगदान दे सकता है क्योंकि आप एंटीकोआगुलेंट पर हैं, यह ब्रेन फंक्शन के प्रगतिशील नुकसान का एक और तरीका हो सकता है। क्या कोई स्टडी  है जो हमें यह पता लगाने में मदद कर सकता है कि इनमें से कौन सा संभावित तरीका एएफ और डीमेंसिया के बीच संबंधों की बेहतर व्याख्या कर पाए।

मैं आपको पहले ही बता चुका हूं कि कुछ सबूत हैं कि एएफ रोगियों को स्ट्रोक के बिना भी माइक्रो इंफार्क्टस हो सकता है। यदि ऐसा होता, तो एंटीकोआगुलेंट लेना सुरक्षात्मक हो सकता है। और कुछ स्टडीज हैं जिनका थोडा सा झुकाव एएफ वाले रोगियों में एंटीकोआग्यूलेशन के पक्ष में है। और, कुछ मायनों में ऐसे स्टडीज हैं जिन्होंने उन रोगियों की स्टडी की जो वार्फरिन ले रहे थे और पता लगाया कि यदि वार्फरिन कण्ट्रोल बहुत अच्छा था, तो आपके वारफारिन कण्ट्रोल खराब होने की तुलना में आपको डीमेंसिया का कम रिस्क था। एक स्वीडिश रेत्रोस्पेक्टिव स्टडी भी था, जिसमें 444,000 रोगियों को देखा गया और पाया गया कि जिन रोगियों को एएफ था, लेकिन उन्हें कभी स्ट्रोक नहीं हुआ था, जो बेसलाइन पर एंटीकोआगुलंट्स भी ले रहे थे, उनमें डिमेंशिया डेवलप होने का रिस्क, उन रोगियों की तुलना में जो एंटीकोआगुलंट्स पर नहीं थे, 29 प्रतिशत कम था। तो, ऐसा लगता है कि एंटीकोआग्यूलेशन फायदेमंद हो सकता है और विशेष रूप से उन रोगियों में जिनमें एएफ के पहले इलाज़ के बाद एंटीकोआग्यूलेशन शुरू हो गया था। तो, ऐसा लगता है कि शायद जल्दी शुरू किया गया एंटीकोआग्यूलेशन सुरक्षात्मक है, हालांकि सबूत बहुत मजबूत नहीं है। और, यही कारण है कि हमें इसे जानने के लिए क्लिनिकल स्टडी की आवश्यकता है।

बेशक एक और संभावना है कि जब आप एएफ में हों तो आपका दिल उतना रक्त पंप नहीं कर रहा है और हो सकता है कि वही कारन हो। तो, अब हमारे पास एएफ एब्लेशन हैं, जहाँ आप एएफ से छुटकारा पा सकते हैं और हार्ट रिदम को सामान्य करने की कोशिश कर सकते हैं। तो, क्या इस बात का कोई सबूत है कि यदि आपका एब्लेशन हो जाता है तो आपको डीमेंसिया विकसित होने की संभावना कम होती है। और, इंटरमाउंटेन एएफ स्टडी में शोधकर्ताओं ने लगातार 4212 एएफ रोगियों जिनके साथ एब्लेशन हुआ था, की तुलना मुझे लगता है कि बिना एब्लेशन वाले 16,848 एएफ रोगीओं के साथ की और पाया गया कि अल्ज़ाइमर डिमेंशिया 0.9% गैर-एब्लेटेड रोगियों की तुलना में 0.2% एब्लेटेड रोगियों में होता है। यह भी लगता है कि जिन एएफ के रोगियों का इलाज एब्लेशन द्वारा किया गया था उनमें डीमेंसिया के अन्य रूपों में भी काफी कमी आई थी।

इसलिए, हमें निश्चित रूप से बेहतर डेटा और वास्तव में यह देखने के लिए एक स्टडी  की आवश्यकता है कि क्या एब्लेशन के द्वारा रिदम कण्ट्रोल भविष्य में डीमेंसिया के रिस्क को कम कर सकता है। समस्या यह है कि इस तरह के एक स्टडी के लिए हजारों और हजारों रोगियों की आवश्यकता होगी, और यह बहुत लंबे समय तक चलेगा। और इसलिए यह संभावना नहीं है कि ऐसी कोई स्टडी हो पाए। इस तरह के स्टडी को करने के लिए प्रयास करना होगा और वर्कआउट करना होगा। सबको पैसा कमाना है और यह कोशिश करना और वर्कआउट करना मुश्किल है कि इस तरह के काम के लिए पैसा कहां से आएगा।

इसलिए, इन आंकड़ों के आधार पर हम एएफ और डीमेंसिया के बारे में अब तक जो निष्कर्ष निकाल सकते हैं, वे हैं, एक, एएफ स्ट्रोक से जुड़ा है, लेकिन यह डीमेंसिया और सभी प्रकार के डीमेंसिया से भी जुड़ा है। दूसरे, एएफ के इलाज में जीवनशैली में बदलाव और वैस्कुलर रिस्क फैक्टर्स का कण्ट्रोल हमेशा जरूरी होता है। तीसरा, एंटीकोआगुलंट्स डीमेंसिया के रिस्क को नहीं बढ़ाता है, लेकिन सुरक्षात्मक हो सकता है। और इसलिए एएफ के पहले एपिसोड के बाद जितनी जल्दी हो सके इसे शुरू किया जाना चाहिए, खासकर उन रोगियों में जो वर्तमान गाइडलाइन्स के अनुसार एंटीकोगुलेशन के लिए एलीजीबल हैं। नंबर चार, स्ट्रोक नहीं होने पर भी ब्रेन की स्कैनिंग से माइक्रो इंफार्क्टस का पता लगाने में मदद मिल सकती है जो तब आपको यह वर्कआउट करने दे सकता है की क्या आप डीमेंसिया के हाई रिस्क में हैं।

भले ही आप एंटीकोआग्यूलेशन के एलीजिबिलिटी को पूरा नहीं करते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि आप युवा हैं और आपके पास कोई रिस्क फैक्टर नहीं है, तो अधिकांश डॉक्टर आपको एंटीकोआगुलंट् नहीं देंगे, लेकिन यदि आप इस के लिए असहज हैं तो ब्रेन स्कैन और माइक्रो इंफार्क्टस के सबूत को तलाशने से आपको यह निर्णय लेने में मदद मिल सकती है कि क्या एंटीकोआग्यूलेशन आपके लिए सही है बजाय इस पारंपरिक ज्ञान को स्वीकार करने का कि आप कम रिस्क वाले हैं।

हमें यह बताने के लिए स्टडी की सख्त जरूरत है कि क्या एंटीकोआग्यूलेशन और रिदम कंट्रोल स्ट्रैटेजी, जैसे कि एब्लेशन, डिमेंशिया के रिस्क को कम करते हैं और अगर यह साबित हो जाता है तो यह भविष्य में एएफ के इलाज के तरीके को पूरी तरह से बदल सकता है।

तो, मुझे आशा है कि आपको यह उपयोगी लगा होगा। डीमेंसिया उनके लिए एक बहुत ही डरावना विषय है जिन्हें इससे जूझना पड़ता है और मेरा इरादा लोगों को परेशान करने का नहीं है। लेकिन मुझे चिंता है कि हमारे पास पर्याप्त डेटा होने में 10 से 20 साल लग सकते हैं और तब क्लिनिकल गाइडलाइन बदलेगी और ये 20 साल कुछ रोगियों के लिए बहुत देर हो सकती है। यही कारण है कि मैं चाहता था कि मेरे दर्शक इस परेशान करने वाले रिसर्च को जाने और अपने आप को इस बात से अवगत रखें की एएफ और डीमेंसिया की दुनिया में क्या हो रहा है।

मैं आप सभी के अच्छे स्वास्थ्य और ढेर सारी खुशियों की कामना करता हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद। शुभकामनाएं। धन्यवाद।

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